जालंधर 29 जनवरी (रमेश कुमार) दिव्या ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से बिधीपुर आश्रम में साप्ताहिक सत्संग कार्यक्रम किया गया, जिसमें गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या साध्वी पल्लवी भारती जी ने गुरु संगत को आध्यात्मिक प्रवचन प्रदान किए। साध्वी जी ने प्रवचनों के अंतर्गत बताया कि आज का विद्वत समाज आधुनिक जीवन की आपाधापी में एक पूर्ण सतगुरु की अनिवार्यता को भूल बैठा है। परंतु यदि हम इतिहास पर एक सरसरी नजर डालकर देखे तो देखते है कि श्रेष्ठ मानवों का गठन सदा सतगुरु के हस्त तले ही हुआ है।स्वामी विरजानंद जी का आश्रम दयानंद सरस्वती की निर्माण स्थल थी,तो समर्थ गुरु रामदास जी के सामर्थ्य ने ही शिवा को छत्रपति शिवाजी बनाया था। चाणक्य की कुटिया चंद्रगुप्त मौर्य का प्रशिक्षण केंद्र थी,तो नरेंद्र में छिपे विवेकानंद को परमहंस के सधे हुए हाथों ने ही तराशा था। राजसी परिवेश के बीच भी जिसने जनक को ‘विदेही’ बना दिया, वे गुरु अष्टावक्र ही थे। कहने का भाव यह है कि समाज के क्षितिज पर जब भी कोई व्यक्तित्व प्रदीप्त हुआ,तो उसमें गुरु का ही कृपा प्रकाश कम कर रहा था। समाज को ऐसे श्रेष्ठ व्यक्ति गुरुओं की ही देन रहे हैं। तभी तो शास्त्रों में सतगुरु की तुलना ब्रह्मा,विष्णु और महेश से की है। जैसे ब्रह्मा जी सृष्टि के जन्मदाता हैं,वैसे ही गुरु अपने शिष्य को आध्यात्मिक जगत में जन्म देते हैं। और जब शिष्य का आध्यात्मिक जन्म होता है तो वह अन्तर्जगत में प्रवेश कर ईश्वर के साम्राज्य का प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर पाता है। परंतु अन्तर्जगत में केवल प्रवेश करना ही पर्याप्त नहीं है।अपने लक्ष्य को भेदने के लिए निरंतर आगे बढ़ना भी जरूरी है।आगे बढ़ते हुए बहुत संभव है कि मार्ग में कुछ बाधाएं व रूकावटे आए,ऐसे में गुरु ही शिष्य की रक्षा करता है।उसे पग पग पर संभालता है। ठीक जैसे ब्रह्मा द्वारा रची गई सृष्टि के पालन पोषण व संरक्षण का दायित्व भगवान विष्णु का है। ब्रह्मा जी की बनाई इस सृष्टि में भगवान शिव संहार का कार्य किया करते हैं।गुरु भी संहार करते है। शिष्य की दुष्टप्रवृत्तियों का! उसके हृदय में व्याप्त अवगुणों का!काम,क्रोध,मोह,लोभ,अहंकार आदि का जो उसे घुन की तरह खोखला किए जा रहे हैं।गुरु शिष्य के जन्म जन्मांतरों के कर्मों व कुसंस्कारों का खात्मा कर देता है। तभी गुरु को शिव भी कहा गया है।